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कविता

स्वतंत्रताएँ सभी

राजकुमार कुंभज


बाँसुरी बजाता हूँ
तो हुंकार भी भरता हूँ उतनी-उतनी ही
कि जितनी-जितनी खाता हूँ रोटियाँ
अपने हक, अपने हिस्से की
अपने हक, अपने हिस्से में किंतु
लायक नहीं, नालायक हूँ मैं
तोड़ता हूँ जंजीरे उन तमाम कैदियों की
जो पक्षधर स्वतंत्रता के
और स्वतंत्रताएँ सभी।

 


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